Thursday, November 11, 2010
.§"तुम खुद मेरी गजल बनो"§ . . . . . मेरी कविता का अर्थ न पूछो, .उसमेँ अर्थ कहाँ है? .मेरे गीतोँ के बोल अनूठे! .उनमेँ व्यर्थ न उलझो। .मेरी कविता के साथ बहो, .और मेरे गीतोँ मेँ झूमो। .हो साहस तो करो नृत्य, .अपने आपा को भूलो। .मेरी गजलेँ तो दीवानी हैँ, .इनमेँ क्या हासिल है? .न मानो तो मेरी गजलोँ के, .दीवानोँ से पूछो। .कहां कहां तुम गागर लेकर, .जल भरने को घूमे? .पर रीती ही रही हमेशा, .जब देखी आकर के घर मेँ। .कितनी क्रांति हुई है जग में! .कितने राज्य बने मिटे हैँ! .उनका कोई अर्थ बताओ? .आखिर सब वे दफनाई हुई, .स्मृतियाँ हैँ। .तुम संजीदे लोग गजब हो! .दीवानोँ की हँसी उड़ाते, .खुद रोते दुख सहते, .साथ कभी कुछ क्या ले जा पाते? .बुद्धि की घानी अब तक, .कितना क्या कुछ पेर चुके हो? .किँतु लगा क्या हाथ अभी तक, .अनजाने का विस्तार कहां तक? .छोड़ो दिमाग कीबात, .यहां तो बात करो तुम दिल की, .मेरी कविता के साथ बहो, .और मेरे गीतोँ मेँ झूमो। .तुम खुद मेरी गजल बनो, .उसका अर्थ न पूछो। . . . (द्वारा: दिनेश पाण्डेय)
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